चुनाव सिर्फ़ वोट और नतीजों का लेखा-जोखा नहीं होते; वे समाज की उम्मीदों, उसके डर और उसकी सामूहिक चेतना का प्रतिबिंब होते हैं। बिहार का चुनाव हमेशा से ही इन सब मामलों में बहुत जटिल रहा है। इसी जटिलता को समझने के लिए मैंने एक AI के साथ लंबी और गहरी बातचीत की। यह बातचीत महज़ चुनावी भविष्यवाणियों से शुरू हुई, लेकिन जल्द ही यह वोटर के मनोविज्ञान, राजनीतिक नैरेटिव और गठबंधनों की अंदरूनी बनावट जैसे गंभीर विषयों में उतर गई।
पेश है हमारी पूरी बातचीत, बिंदु-दर-बिंदु, उसी क्रम और गहराई के साथ।
पहला पड़ाव: "सरकार कौन बनाएगा?"
मैंने AI के सामने एक काल्पनिक स्थिति रखी: "मान लीजिए यह आपके वाइवा का आख़िरी सवाल है और आपका चुनाव इसी पर निर्भर करता है, तो बताइए बिहार में सरकार कौन बनाएगा?"
AI का जवाब पूरी तरह से एक्ज़िट पोल के आँकड़ों पर आधारित था। उसने बताया कि ज़्यादातर सर्वे एनडीए (NDA) गठबंधन को 122 सीटों के बहुमत के आँकड़े से कहीं आगे दिखा रहे थे, और महागठबंधन पीछे था। यह एक सीधा और सपाट जवाब था, लेकिन बिहार की राजनीति इतनी सीधी नहीं है।
दूसरा पड़ाव: सोशल मीडिया का उबाल बनाम ज़मीनी हक़ीक़त
मेरा अगला सवाल था कि अगर एक्ज़िट पोल सही हैं, तो सोशल मीडिया पर तेजस्वी यादव और महागठबंधन के पक्ष में जो लहर दिख रही है, उसका क्या मतलब है? RJD की रैलियों में भारी भीड़, नौकरियों के वादे पर युवाओं का उत्साह—क्या यह सब सिर्फ़ एक डिजिटल भ्रम था?
AI ने इस विरोधाभास को बहुत अच्छे से समझाया। उसने माना कि सोशल मीडिया पर तेजस्वी के लिए एक मज़बूत माहौल था, लेकिन उसने तुरंत तीन महत्वपूर्ण बातें जोड़ीं:
- पहुँच की सीमा: बिहार की लगभग 65-75% आबादी अभी भी पारंपरिक मीडिया (अख़बार, टीवी) और ज़मीनी अभियानों से ज़्यादा प्रभावित होती है। सोशल मीडिया का प्रभाव शहरी और युवा आबादी तक ज़्यादा सीमित है।
- इको चैंबर: सोशल मीडिया पर लोग वही देखते और सुनते हैं जो वे सुनना चाहते हैं। महागठबंधन के समर्थक एक-दूसरे के पोस्ट शेयर करके एक ऐसा माहौल बना देते हैं जिससे लगता है कि हवा उन्हीं की तरफ़ है, जबकि असलियत अलग हो सकती है।
- विकास की अवस्था: AI ने बिहार में सोशल मीडिया के प्रभाव को "किशोरावस्था" (Adolescent Stage) में बताया—यह इतना शक्तिशाली हो चुका है कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन अभी यह इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि अकेले दम पर चुनाव का नतीजा पलट दे।
तीसरा पड़ाव: "साइलेंट वोटर" का रहस्य
बातचीत का रुख़ उस रहस्यमयी "साइलेंट वोटर" की ओर मुड़ा, जो किसी भी सर्वे में अपनी राय ज़ाहिर नहीं करता। मैंने पूछा कि यह कौन है और यह किस गठबंधन को फ़ायदा पहुँचाता है?
AI ने बताया कि "साइलेंट वोटर" बिहार की राजनीति का एक अहम हिस्सा है, और इसमें तीन मुख्य समूह हैं:
- महिलाएँ: ये वोटर अक्सर सरकारी योजनाओं (जैसे गैस सिलेंडर, घर, आर्थिक मदद) की लाभार्थी होती हैं। वे अपनी राय ज़ाहिर नहीं करतीं, लेकिन वोटिंग के दिन चुपचाप उस पार्टी को वोट देती हैं जिससे उन्हें सीधा लाभ मिला हो। परंपरागत रूप से, इसे NDA का मज़बूत वोट बैंक माना जाता है।
- अति-पिछड़ी और दलित जातियाँ: इन समुदायों के लोग स्थानीय सामाजिक दबाव के कारण चुप रहते हैं, लेकिन वोट उसे देते हैं जो उन्हें सुरक्षा और सम्मान का एहसास दिलाता है।
- अनिर्णायक वोटर: ये वो लोग हैं जो आख़िरी दिन तक तय नहीं कर पाते कि किसे वोट देना है। उनका फ़ैसला हवा का रुख़ तय करता है।
चौथा पड़ाव: वोटर का 'छठा सेंस' या एक अनुभवी अंदाज़ा?
जब बातचीत बहुत गहरी हो गई, तो मैंने एक दार्शनिक सवाल पूछा: "क्या हर वोटर के पास एक 'छठा सेंस' होता है?"
AI ने तुरंत इस शब्द को सही करते हुए कहा कि यह कोई जादुई शक्ति नहीं, बल्कि एक तरह का "त्वरित निर्णय" (Accelerated Judgment) है। यह वोटर के दिमाग़ में चलने वाली एक तेज़ प्रक्रिया है जो भरोसा, व्यक्तिगत अनुभव और सामुदायिक भावनाओं जैसे सैकड़ों तर्कों को मिलाकर एक फ़ैसले पर पहुँचती है।
लेकिन मैं इस जवाब से संतुष्ट नहीं था। मैंने साफ़ किया कि मेरा मतलब उस आम धारणा या 'हंच' से है, जब एक आम वोटर सोचता है, "नेता तो सब एक जैसे हैं, जीतने के बाद कुछ नहीं बदलता।"
इस पर AI ने दो बहुत महत्वपूर्ण अवधारणाएँ बताईं:
- राजनीतिक मोहभंग (Political Cynicism): यह वो भावना है जब वोटर को लगता है कि सिस्टम भ्रष्ट है और कोई भी नेता उसके लिए काम नहीं करेगा। ऐसा वोटर या तो वोट नहीं देता, या फिर किसी ऐसी पार्टी को वोट देता है जो स्थापित पार्टियों को "सबक़ सिखा" सके।
- अतीत के प्रदर्शन पर वोट (Retrospective Voting): यह एक अनुभवी वोटर का तरीक़ा है। वह नए, आकर्षक वादों पर विश्वास करने के बजाय उम्मीदवार के पिछले कार्यकाल के काम को देखता है। अगर पिछला अनुभव ख़राब रहा है, तो कोई भी नया वादा उसे प्रभावित नहीं कर सकता।
पाँचवाँ पड़ाव: RJD का अतीत बनाम BJP का नैरेटिव
अब मैंने बातचीत का सबसे मुश्किल और असली सवाल पूछा: "अगर वोटर का अंदाज़ा इतना मज़बूत है, तो वो तेजस्वी यादव के बतौर डिप्टी CM किए गए अच्छे कामों को क्यों नज़रअंदाज़ कर देता है और RJD के 15 साल पुराने 'जंगल राज' को क्यों याद रखता है? वहीं दूसरी तरफ़, वोटर BJP या सवर्ण जातियों की ग़लतियों को क्यों भूल जाता है?"
AI का जवाब इस चर्चा का शिखर था। उसने इसे "नैरेटिव की लड़ाई" (War of Narratives) बताया।
- RJD के लिए: BJP ने RJD के अतीत ("जंगल राज") को एक शक्तिशाली और भावनात्मक नैरेटिव बना दिया है, जो आज भी लोगों के मन में डर पैदा करता है। यह नैरेटिव तेजस्वी के व्यक्तिगत अच्छे काम पर भारी पड़ता है।
- BJP के लिए: BJP की ग़लतियों को "शासन की विफलता" (Governance Failure) के रूप में देखा जाता है, न कि "अराजकता" के रूप में। BJP इस विफलता को राष्ट्रवाद, कल्याणकारी योजनाओं और प्रधानमंत्री मोदी के करिश्माई चेहरे के पीछे छिपा लेती है।
AI ने यहीं पर "शॉक एब्जॉर्प्शन" (Shock Absorption) का सिद्धांत पेश किया। NDA गठबंधन में, अगर JDU कमज़ोर होती है, तो BJP उसे संभाल लेती है। अगर राज्य सरकार के ख़िलाफ़ गुस्सा है, तो मोदी का चेहरा उसे शांत कर देता है। यह एक ऐसा तंत्र है जो झटकों को झेल जाता है।
छठा पड़ाव: महागठबंधन का 'शॉक एब्जॉर्प्शन' कहाँ है?
मैंने पूछा, "तो क्या महागठबंधन के पास ऐसा कोई 'शॉक एब्जॉर्बर' है?"
AI का मानना था कि उनके पास इसकी भारी कमी है। RJD का कोर M-Y (मुस्लिम-यादव) वोट बैंक और तेजस्वी का करिश्मा एक हद तक झटके सहते हैं, लेकिन यह NDA के संगठित तंत्र की तरह मज़बूत नहीं है। कांग्रेस और वामपंथी दल समर्थन तो देते हैं, लेकिन वे वोट ट्रांसफर कराने या एक साझा नैरेटिव बनाने में उतने प्रभावी नहीं हैं।
AI ने इसके लिए तीन समाधान भी सुझाए:
- साझा न्यूनतम कार्यक्रम: सिर्फ़ नौकरी का वादा नहीं, बल्कि एक "साझा विकास चार्टर" बनाना, जिसमें हर सहयोगी दल की भूमिका तय हो।
- अनुशासन समिति: सीट बँटवारे जैसे विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थायी समिति बनाना।
- तेजस्वी की छवि को संस्थागत बनाना: लड़ाई को "तेजस्वी बनाम मोदी" बनाने के बजाय, इसे "महागठबंधन का गवर्नेंस मॉडल बनाम NDA का मॉडल" बनाना।
अंतिम पड़ाव: राष्ट्रीय नेताओं की भूमिका और निष्कर्ष
बातचीत के अंत में, हमने चर्चा की कि क्या तेजस्वी को राहुल गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं को ज़्यादा सक्रिय रूप से शामिल करना चाहिए। AI का मानना था कि यह एक दोधारी तलवार है। राहुल गाँधी का साथ गठबंधन को एक राष्ट्रीय पहचान दे सकता है, लेकिन अगर उनका प्रचार स्थानीय मुद्दों से भटक गया, तो यह उल्टा पड़ सकता है।
हमारी इस लंबी और ज्ञानवर्धक बातचीत का निष्कर्ष यह था कि बिहार में चुनाव जीतने के लिए महागठबंधन को सिर्फ़ एक करिश्माई चेहरे पर निर्भर रहने के बजाय, खुद को एक "शॉक-एब्जॉर्बिंग संस्था" के रूप में विकसित करना होगा। जब गठबंधन एक व्यक्ति-आधारित झुंड से हटकर एक कार्यक्रम-आधारित टीम बनेगा, तभी वह NDA के मज़बूत चुनावी तंत्र का मुक़ाबला कर पाएगा।